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म्यूज़ियम / निदा फ़ाज़ली
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सलाखें ही सलाखें
अनगिनत छोटे-बड़े ख़ाने
हर इक ख़ाना नया चेहरा
हर इक चेहरा नई बोली
कबूतर
लोमड़ी
तितली
हिरण, पत्थर, किरण, नागिन
क्भी कुछ रंग सा झमके
कभी शोले-सा बल खाये
कभी जंगल, कभी बस्ती, कभी दरिया सा लहराए
सिमटते, फैलते, फुँकारते, उड़ते हुए साए
न जाने कौन है वह
चलता-फिरता म्यूज़ियम जैसा
शबाहत से तो कोई आदमी मालूम होता है