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सूर्योदय / मोहनलाल महतो 'वियोगी'

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फैल गयी लाली रम्य पूरब क्षितिज पर
जागे खग नीड़ों में सजग जग हो गया।
गन्धवह आया मन्द-मन्द इठलाता-सा,
मधु-गन्ध लोभी मधुकर पद्म-कोश से
जाग कर बन-कलियों की चले खोज में।

झड़के पराग लघु पंखों से द्विरेफ के
शान्त सरसी स्वच्छ जल पर छा गया।
अन्धकार-गज भागा गहन विपिन में
दिनपति प्रकटा सरोष मृगराज-सा,
केसर-सी किरणें विकीर्ण हुई नभ में।

भाग के मृगांक छिपा अस्ताचल ओट में
भय था कि मृगचिह्न देख कहीं केसरी
टूटे मृत-भाग गयी रजनी किराती सी,
आँचल में भर के नखत-गुंजा भय से।