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बचपन / दिनेश कुमार शुक्ल

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हमारे साथ खेलने
आया था बचपन
एक दुधमुँहा खेल
जरा सा गहराया शाम का धुँधलका
कि डरकर घर भाग गया

कहाँ रहता है बचपन
आकाश में कि समुद्र में
कि समय में

मैं ढूँढ़ लाऊँगा
बचपन को
और दूँगा उसे एक सूर्य
जो कभी अस्त नहीं होता
भासमान टमाटर-सा शीतल
गेंद-सा चंचल
सूर्यमुखी-सा एक सूर्य

मैं बो देना चाहता हूँ
सूर्य ही सूर्य सारे खेतों में
ताकि कभी न हो अँधेरा
और बचपन खेलता रहे
अपना दुधमुँहा खेल बिना भय के

आज तो
कुछ नहीं कह सकी रात भी
इतना घना था सन्नाटा
उसे तोड़ने की ताकत
कहाँ से जुटा पाती रात
मैं चाहता हूँ ऐसा कुछ
कि रात सुना सके लोरी
और बचपन स्वप्न में भी
खेले हम दोनों के साथ

वे जो अपनी साँसों से
उगलते हैं अन्धकार
उन्हें भी मिले बचपन
की आभा

इससे ज्यादा
हम कुछ नहीं माँगते
संसार से