निषिद्ध प्रेम / अनिल मिश्र
रंगीन कपास की तरह उड़ते हुए दिन थे
जुन्हाई रातों से खेलती थी
समय तुम तय करती थी
और हमेशा देर से आती थी
दिन पैरों में चरखियां पहनकर भागता था
और हम पीछे पीछे
जैसे हर उजाले में होता है अंधेरा
हमें महसूस होने लगा
अपनी सुबह में शाम का झपसते आना
हमने उपदेश पिए फब्तियां खायीं
बड़े ही हुए इसी खुराक पर
किसी का धेले भर का
नुकसान नहीं किया
लेकिन सबसे बड़ा इनाम
हमारे ही सिर पर रखा गया
हम न ज्यादा बोलते थे
न ज्यादा चुप रहते थे
दोनो के अलग अलग अर्थ निकाले जाते थे
आग से मोमबत्ती की तरह
छिपा कर रखते थे इच्छाएं
जलेगी तो गलेगी
हम फूल नहीं खरीदते थे
माली मुस्कराता था
मन्दिर जाने की हिम्मत
कभी नहीं जुटा सके
देवता ने कुछ पूछा
तो क्या बोलेंगे
अधूरे सपनों में नींद खुल जाती थी
क्रिकेट की नो बॉल सा था कोई भी इज़हार
हम रास्तों पर कभी भी नहीं निकले
पुलिस काट सकती थी चालान
अंधेरे ही करने लगते थे चुगली
जिसे हम अपना राजदार समझते थे
हमारे ऊपर मंडराती चिड़ियां इस तरह चहचहाती थीं
जेसे दिखा हो उन्हें कोई जंगली जानवर
अपने गुम्बदों पर प्रेम के झंडे लहराते
ग्रंथों ने मना कर दिया खड़े होने से हमारे साथ
अपनी मंजूषाओं में बंद किए
आंखो से बोले एक एक शब्द
हम छींट आना चाहते थे उस दुनिया में
जहां वीजा पासपोर्ट नहीं लगते