भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

गोधूलि / प्रेमरंजन अनिमेष

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 14:05, 8 जनवरी 2009 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=प्रेमरंजन अनिमेष |संग्रह=मिट्टी के फल / प्रेमरं...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

जीवन का ताप
उतर आया है माँ की तलहथियों में
उनमें उठती है लहर

यह तबसे है जबसे
मैं हूँ

उसके पाँवों में लगा रहता है पानी

यह तो तभी से है जबसे वह

जोड़ों में उसके लगती है
हर मौसम हवा
जबसे बहू-बेटे नहीं साथ

ख़ाली-ख़ाली आकाश रहता है
माँ की आँखों में

मायके में
नहीं रही
उसकी माँ
'चलो चलें
मैं ले चलूँगा तुम्हें अपनी पीठ पर...'

पर जाने को तैयार नहीं वह
अपनी मिट्टी से परे

उठकर चलती है तो
मिट्टी झरती है
माँ की देह से...