भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
परमसत्ता / श्रीनिवास श्रीकांत
Kavita Kosh से
59.94.210.37 (चर्चा) द्वारा परिवर्तित 10:00, 12 जनवरी 2009 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=श्रीनिवास श्रीकांत }} '''परमसत्ता''' ब्रह्माण्ड...)
परमसत्ता
ब्रह्माण्डीय आत्मा गायब है
आज के परिदृश्य से
उस पर हावी है
आदमी की भौतिक विषा— अंतरंग
मछली की तरह छटपटाती
रूहपोश नज़र आयेगी तुम्हें
वह परमा
पर्वतीय ढलानों पर
हवा में झूमते दरख्तों में
आसमान में
तैरते बादलों में
उदयास्त सूरज के
सम्मोहन में
रंगों में
हवाओं में
भाप बन कर उड़ती
पत्तियों की ओस में
आसमान का नटुआ
हवाओं के हाथ से
जब बजाता मृदंग
नाचने लगता है
आसपास
तब वह होती है वहीं
चेतना के सागर-जल में
समाधिस्थ
सतह पर
उछलती रहती हैं लहरें
अपने वृहद घोष में
कूदतीं ज्वा की रस्सियाँ
तूफानों के साथ
नजर आती हैं वे
चन्द्रमा के हजार-हजार बिम्बों में
समुद्र के ज्वार में
तट पर उमड़ती लहरों की
तैरती बक पंक्तियों में पर फडफ़ड़ातीं।