भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

फ्यूंली–दो / वीरेन डंगवाल

Kavita Kosh से
Pradeep Jilwane (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 12:27, 29 जून 2010 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=वीरेन डंगवाल |संग्रह=स्याही ताल / वीरेन डंगवाल }} …)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज


फागुन में जब वे खतरनाक उतारों से
घास काट कर लाएंगी
तो गट्ठर में बंध आयेंगे
वे फूल भी.

भीटों में घास के बीच में ही छिपे होते हैं
उनके झाड़

वसन्‍त्‍ के वे विनम्र कांटें भी
पसंद आते हैं मवेशियों को
फूलों की तो बात ही क्‍या कहना

बल्कि
जब चारे के बीच दिखती है नांद में
वह मसली हुई पीताभा
तब
खुशी से गोरूओं का नथुने फुंकारना
और कान फटफटाना तो देखो !