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अंतर्द्वंद्व / एम० के० मधु
Kavita Kosh से
कैनवस पर उतरती
तुम्हारी तस्वीर
मैं बनाता हूं
मिट-मिट जाती है
रंग फैल जाते हैं
धब्बे बन आते हैं
और तूलिका तोड़कर
बैठ जाता हूं चुपचाप
फिर ढूंढता हूं - नये रंगों को
नई रेखाओं को
जोड़ता हूं नये सिरे से
नये ब्रश के साथ
किन्तु उसकी अंजली में
सज जाता है एक प्रस्तर-खंड
क्योंकि हो गया था
रंगों का बिखराव ही इस तरह।