भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
अक्षर-अक्षर बाँचूँ / नईम
Kavita Kosh से
अक्षर-अक्षर बाँचूँ,
पंकित् पंक्ति जी लूँ।
हैं वो आलेख कहाँ,
जिन्हें घोल पी लूँ?
दिल के मक़सद, दिमाग़ के फितूर,
वैसे मेरी दिल्ली बहुत दूर;
बीज-मंत्र उच्चारूँ,
छाती पर कीलूँ।
बासी हो गए तुम्हारे, मेरे प्रेम-पत्र,
क्षेपक से आँस रहे अल्बम में लगे चित्र;
यात्राएँ स्थगित करूँ,
कहाँ गाड़ियाँ ढीलूँ?
अनब्याही भूलें दुखस्वप्न बनीं,
सूने में तोड़ रही, आबादी मुझे घनी;
वक़्त ने उधेड़े जो
बखिए कैसे सी लूँ?