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अन्तर्द्वन्द्व / संध्या सिंह
Kavita Kosh से
किसने धूमिल किया नगीना
किसने मुझको मुझसे छीना
मेरे भीतर मेरे मन का
कौन विरोधी आन बसा
जब आशा का कलश उठाया
आशंका ने ज़हर भरा
जब भी निर्भय होना चाहा
भीतर-भीतर कौन डरा
जब भी ख़ुद के बन्धन खोले
जाने किसने और कसा
जब भी थक कर सोना चाहा
भीतर-भीतर कौन जगा
जब भी अपनी कसी लगामें
भीतर सरपट कौन भगा
बीच नदी मेरे काँटे में
मेरा ही प्रतिबिम्ब फँसा
उसकी सारी ठोस दलीलें
मेरे निर्णय पिघल गए
दाँव नेवले और साँप से
टुकड़ा-टुकड़ा निगल गए
मेरी हार निराशाओं पर
मुझमे ही ये कौन हँसा