क़तारें / मनोज चौहान
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हर रोज ही ,
अस्पताल में लगी ,
वह लम्बी कतारें ,
कुछ बूढ़े,
मगर बीमार चेहरे ,
खड़े रहते हैं ,
थामे हुए पर्ची,  
लाठी के सहारे l
डॉक्टर साहब,
जब भी आते हैं,
ब्रेक के बाद,
चाहे वो, 
टी ब्रेक हो ,
या फिर लंच ब्रेक,
तो बुलाते हैं पहले,
जान – पहचान वालों को l
पूछते है उनका, 
हाल – चाल,
लिखते हैं, 
उनकी दवा – दारू l
और जब निढाल,
हो जाता है, 
वह बूढा शरीर,
तो बैठ जाते हैं,
वहीँ पर ,
लम्बी कतार के बीच l 
वक्त का विस्तृत , 
अनुभव संजोये ,
झांकती है अस्थियां,
कमजोर देह के, 
भीतर से l
और फिर छुट्टी,
होने पर ,
डॉक्टर साहब,
उठ जाते हैं सीट से l
लौट जाता है वह ,
बूढा शरीर,
वापिस,
घर की ओर l
और अगले दिन ,
बन जाता है हिस्सा ,
फिर एक बार, 
उसी कतार का l
	
	