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ग़नीमत है / शरद कोकास
Kavita Kosh से
व्यवस्था की सड़ान्ध में मंडराती है
प्रलोभन की खुशबू
सूंघते हुए जिसे शंका उपजती है
सूंघने की ताकत पर
ज़बान के उलटफेर से
विरोध की जगह निकलती है
चापलूसी की भाषा
मुझे सन्देह होता है
मेरे मुँह में कहीं
दूसरों की ज़बान तो नहीं
हाथों की उंगलियाँ
मुट्ठियों की शक्ल अख़्तियार करने की बजाय
जुड़ जाती हैं आपस में
मुझे शक होता है
ये हाथ मेरे नहीं
आँखों से देखता हूँ दूसरों का दिखाया
फेर लेता हूँ आँखें अनचाहे दृश्यों से
साहस नहीं जुटा पाता
आईने के सामने
सुनता हूँ घंटियाँ
अज़ान और प्रार्थनाएं
आस्था के कुएँ में गूंजती हुई
जो रोक देती है चीखों की आवाज़
ग़नीमत है कि जिस्म के भीतर
मेरा दिमाग़ अभी तक मेरा है।