भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
चाहत / पूनम भार्गव 'ज़ाकिर'
Kavita Kosh से
लौटते समय सोचना
कि तुम किस पगडंडी से आए थे
सोचना कि
शिकायतें
कितनी फितरती रहीं तुम्हारी
खेत की छाती पर धरी जलती ईंट के
निशान बता देंगें
आग की तासीर
जल रही है धूप भी
तुम्हारी कारगुजारियों से
जूते में चल रहे पैर
सिर पर चढ़ने की गुहार लगा रहे हैं
सिर ढूँढ रहा है छाँव
दिमाग़ बेहद व्यस्त है
मशीनों से निकाल रहा है समाधान
दूसरी तरफ़
निर्जला बिठा दी गई
एक नन्ही परी दे रही है निमंत्रण पत्र
बादलों के मसीहा को
और शिद्द्त से चाहती है कि
उसे जुकाम हो जाए
उसने सुना था
दादी की एक कहानी में
कि छींक भी दे ईश्वर तो बारिश होती है!