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तुम्हारा बसंत! / मंजूषा मन
Kavita Kosh से
तुम बसंत से खिले हो
खिलकर छा गए हो आकाश पर
झर कर बिछ गए हो धरती पर
खिल कर बिखर गए हो हवा में
महक बन कर
मैं अपने भीतर का पतझर
छुपाने की कोशिश में
मौन पहन लेती हूँ
मैं कभी कुछ सूखे पत्ते
उड़ा देती हूं तुम्हारी ओर
तुम उन्हें में मिला देते हो
पलाश के फूलों में
ये बसंती रंग में रंग जाते हैं
तुम झोलियां भर भर
लुटा रहे हो बसन्त
मैं अब भी छोड़ नहीं पा रही
अपना पतझर
मैं तुम से घबराकर
आँख बंद कर लेती हूँ
फिर अगले ही पल
हाथ बढ़ाकर चुपके से
एक मुट्ठी बसंत उठा लेती हूँ
मुझे भी लुभाता है
तुम्हारा बसंत!!!