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दर्शनाभिलाषा / प्रेमघन

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यों रहि रहि मन माहिं यदपि सुधि वाकी आवै।
अरु तिहि निरखन हित चित चंचल ह्वै ललचावै॥६९॥

तऊ बहु दिवस लौं नहिं आयो ऐसो अवसर।
तिहि लखि भूले भायन पुनि करि सकिय नवल तर॥७०॥

प्रति वत्सर तिहिं लाँघत आवत जात सदा हीं।
यदपि तऊँ नहिं पहुँचत, पहुँचि निकट तिहि पाहीं॥७१॥

रेल राँड़ पर चढ़त होत सहजहिं पर बस नर।
सौ सौ सांसत सहत तऊ नहिं सकत कछू कर॥७२॥

ठेल दियो इत रेल आय वे मेल विधानन।
हरि प्राचीन प्रथान पथिक पथ के सामानन॥७३॥

कियो दूर थल निकट, निकट अति दूर बनायो।
आस पास को हेल मेल यह रेल नसायो॥७४॥

जो चाहत जित जान, उतै ही यह पहुँचावत।
बचे बीच के गाम ठाम को नाम भुलावत॥७५॥

आलस और असुविधा की तो रेल पेल करि।
निज तजि गति नहिं रेल और राखी पौरुष हरि॥७६॥

तिहि तजि पाँचहु परग चलन लागत पहार सम।
नगरे तर थल गमन लगत अतिशय अब दुर्गम॥७७॥

इस्टेशन से केवल द्वै ही कोस दूर पर।
बसत ग्राम, पै यापैं चढ़ि लागत अति दुस्तर॥७८॥

यों बहु दिन पर जन्म भूमि अवलोकन के हित।
कियो सकल अनुकूल सफ़र सामान सुसज्जित॥७९॥

पहुँचे जहँ तहँ प्रतिवत्सर बहु बार जात है।
रहन सहन छूटे हूँ जेहि लखि नहिं अघात है॥८०॥

काम काज, गृह अवलोकन, कै स्वजन मिलन हित।
ब्याह बरातन हूँ मैं जाय रहे बहु दिन जित॥८१॥

यदपि गए जै बार हीन छबि होत अधिकतर।
लखि ता कहँ अति होत सोच आवत हियरो भर॥८२॥

पै यहि बार निहार दशा उजड़ी सी वाकी।
कहि न जाय कछु विकल होय ऐसी मति थाकी॥८३॥