भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

पाबस ऋतु बरनन / रसलीन

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

1.

कोप करि इंद्र कस पाछिली सो प्रान अब
बना कर घर जाली प्रकट जनाई है।
दुंदुभी गरज, धुरवाहीं धजा रसलीन
पवन हरोल बन आगें उठि धाई है।
धनुक कमान कर बूँदन के बान साधि
चहुँधान देखो यह कैसी झर लाई है।
बिज्जु छटा हिय गहि पटा ब्रज लटा देखि
कटा करिबें को फौज घटा चढ़ि आई है॥72॥

2.

साँची बात मेरी रसलीन ए न मानति हैं,
उलट के मोहि समुझाय नहीं भोर तें।
धूर जल भरे पोन बीजुरी को संग धरे
आवत नहीं लै गगन घन घोर तें।
अवधि के बीते हूँ न छाँड़ी यह देह यातें
गहि के मरोर मेरे आनन कठोर तें।
मनो कर जोर पाँचो तत्व एक ठौर ह्वै (के)
आस लेन आपने कों धाये चहुँ ओर तें॥73॥