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पुतली / जगदीश गुप्त
Kavita Kosh से
नाश औ निर्माण के दोनों ध्रुवों के बीच,
सारी ज़िन्दगी तिरती
जागरण में, स्वप्न में, सुख-दुख सँजोए —
ठीक पुतली की तरह फिरती
चिर-शयन बन
शीश पर जब मृत्यु आ घिरती,
फिर नहीं फिरती,नहीं तिरती।