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बचपन / सुलोचना वर्मा
Kavita Kosh से
मिट्टी के चूल्हे पर जलती
गीली लकड़ी की खुशबू
सांझ को तुलसी पर
जलता दिया बाती
शंख की ध्वनि और
माँ की संध्या आरती
मंदिर के घंटे का नाद
दादी का जलता अलाव
बड़ी माँ के माथे पर
कभी ना अस्त होता सूरज
उस छोटे काले कमरे में
खुशी खुशी रहने का धीरज
दस पैसे वाला
गुलाबी बर्फ का गोला
बुढ़िया के बाल और
नारियल लड्डू वाला
वो कंचे, वो गुलेल
धुआँ उड़ाती रेल
गाँव का बड़ा सा मेला
नाटक, जादूगरवाला
लड़खडाकार गिरने पर
कोई माथा चूम रहा है
ज़िंदगी बाईस्कोप सी है
बस रील की जगह
बचपन घूम रहा है