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विमर्श / नील कमल
Kavita Kosh से
वह एक दरवाज़ा है,
जिससे हो कर आता-जाता रहता है समय ।
किसी भी काल-खण्ड में वह दरवाज़ा
खुला रहता है या खोल दिया जाता है ।
जैसे खुला था त्रेता में
सतीत्व की परीक्षा के लिए -- धरती के फटने तक ।
जैसे खोला गया था,
अपने जंघा पर बैठाने का निमंत्रण देते हुए, द्वापर में
- देवता के अवतरण तक ।
दरवाज़ा नहीं जानता,
कि उसकी मज़बूती या कि आज़ादी
उसके दुर्ग बन जाने में है, जहाँ
अबाध आने-जाने पर रहती है रोक-टोक ।
दरवाज़े की मज़बूती के रास्ते में
खड़ी हैं अदम्य इच्छाएँ,
जो चाहती तो हैं बन्द करना दरवाज़े
लेकिन जिन्हें कुंडी-ताले नहीं स्वीकार ।