भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
विशाल गगन / मधुछन्दा चक्रवर्ती
Kavita Kosh से
विशाल गगन
लिए मेघों का धन
मन्द पवन भी
संग चली आती है
अतृप्त नयन
में बसी आशा घन
शीतल पवन
छूने को
व्याकुल हुआ मन
हो गया चंचल
तुम संग
उस क्षण को
फिर से
जीने के लिए
आनन्द विभोर
होकर
शरद की शरण में
प्रेम से ऋतु-राग
गाने के लिए।