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सुकून / संजय पुरोहित
Kavita Kosh से
जलजला ही तो था जो लील गया
नभ से पाताल तक पर
पर मौत में भी
था एक सुकून ना गरदन उतरी
नफरत के खंजर से ना जले थे तुम बंद पिंजरे में
तमाशा बन कर या कि
कतार बद्ध होकर
ठांय ठांय से
धराशायी होते ना अपनी कब्र
खुदवा कर
धकेले गये
मरे अधमरे तुम ओ हिमालय के पूतों
भयावह मौत मे भी
इतना तो सुकून
था ना तुमको