भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
सूली चढ़ी सांस / रेखा
Kavita Kosh से
लो घण्टी बजी
और शुरू हुई
श्मशान में
तीन प्रेतों की
सामुहिक
शव-साधना
मूक हो गई है वह
शब्द लहरी
गूँगे हो गये हैं
सभी संबोधन
सूली पर लटकी है साँस
बस बाकी है
सन्नाटे को चीरती
सीत्कार
चीत्कारों के दाँव पेंच
बीच में है हवा
सिर्फ हवा
दूषित
ज़हरीली
कुंठा की ग़ुँजलक में कैद
और नुची
हिंसा के पँजों से
कब तक पहनेंगे हम
यह नक़ाब
कब तक जीना पड़ेगा
तहख़ानों में
कब तक टूटेगी मूर्च्छा
उस अपनी-सी लगती
पहचान की
या है फिर
सन्नाटा
नरभक्षी दैत्य-सा
जो निगल जाएगा
मुझे
तुम्हें
उसे
और रह जायेंगे हवा में
खूनी निशान
हमदर्दों की हत्या के बाद
1984