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हवा-1 / केशव शरण
Kavita Kosh से
यह हड्डियों के आर-पार बह रही है
इसमें टूट रहे हैं रोयें
इसमें रुदन के स्वर उभर रहे हैं
इसमें उड़ रही है शमशान की राख
इसमें फड़फड़ा रहे हैं प्राण