हस्ताक्षर / द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी
समय के महाकाव्य में पृष्ठ अपने
लिखे एक - दो जोड़ना चाहता हूँ।
दिवस हर नया पृष्ठ उस काव्य का है
निशा रात-भर में उसे छाप देती;
गगन पर सुनहरे, धरा पर रूपहले
छपे पृष्ठ सुन्दर सुबह सौंप देती।
उन्हीं स्वर्ग - से अक्षरों - बीच कुछ एक
अक्षर नये जोड़ना चाहता हूँ।1।
परम हंस शिशु, विश्व के विहग-पशु
बोलते मौन जो चाँद-सूरज-सितारे;
गगन-सिधु-घन, गिरि-सुमन-वन-पवन
तरु-तृणों, रज-कणों, हिम-कणों के इशारे।
यही उस महाकाव्य की मौन भाषा
उसी मौन में बोलना चाहता हूँ।2।
प्रकृति औ’ पुरुष पात्र हैं दो प्रमुख उस
महाकाव्य के, विश्व है रूप उनका;
हुए स्वर्ग के दूत, अवतार जो भी
रहे अंश उनके, लिये तेज उनका।
उसी अंश के वंश की ज्योति से कुछ
दीये से दीये जोड़ना चाहता हूँ।3।
उषा और संध्या लिए तूलिकाएँ
हरित भूमि, नीले गगन के फलक पर
बनातीं विविधता-भरे चित्र हर पृष्ठ
पर इस महाकाव्य के रंग भर-भर।
उसी भव्य चित्रांकन - योजना में
बना चित्र कुछ जोड़ना चाहता हूँ।4।
कहीं पर ऋचाएँ, कहीं पर अनुष्ठप
कहीं पर सवैये - कवित - गीत - दोहे;
कहीं साखियाँ और चौपाइयाँ तो
कहीं छंद स्वच्छंद लय में पिरोए।
उन्हीं लय-भरे छंद में बँध अपने
लिखे चार-छह जोड़ना चाहता हूँ।5।
लिखा जा रहा पृष्ठ प्रत्येक उस काव्य
का ज्ञान की नवलतम रश्मियों से;
बदलते नये भाव-रस-छंद प्रति क्षण
भरे पृष्ठ पूरे प्रगति-पंक्तियों से।
उसी प्रगति की धार में आ रहीं जो
शिलाएँ, उन्हें तोड़ना चाहता हूँ।6।
गए लिख कि जो ‘आत्मवत् सर्वभूतेषु’
‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ कह गये जो;
गए लिख कि जो ‘सत्यम् एवं जयते’
‘सर्वेभवन्तु सुखिनः’ कह गए जो।
उन्हीं की कड़ी; पंक्तियों की लड़ी-
बीच हस्ताक्षर छोड़ना चाहता हूँ।7।
30.10.76