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अंधेरा और आदमी / प्रताप सहगल
Kavita Kosh से
मुझे दूर
एक आदमी नज़र आया
अंधेरे में घिरा।
निर्निमेष देखता रहा
अंधेरे में घिरा आदमी
वहां सचमुच आदमी था क्या?
देखता रहा निर्निमेष देर तक
अंधेरे में लिपटा
वह आदमी
न हिला
न डुला।
उसके पीछे
रोशनी के दरख्त थे
आगे भी पगडण्डी थी
रोशनी की।
उसकी गर्दन ज़रा-सी हिली
पर उसने
पीछे मुड़कर
न रोशनी के दरख्त देखे
न आगे
मीलों फैली पगडण्डी
वह अंधेरे में लिपटा रहा
जैसे अन्तहीन काले कंबल में
लिपटा हो एक ताबूत
शायद यही था उसका अस्तित्व
पर वे रोशनी के दरख्त
वह मीलों दूर फैली
रोशनी की पगडण्डी
उसका क्या हुआ?