अजनबी शहर से दोस्ती / ब्रजेश कृष्ण
अजनबी शहर से दोस्ती कोई मामूली बात नहीं
अजनबी शहर की किसी गली से गुज़रना भी
कोई मामूली बात नहीं
मगर मैं गुज़रा हर गली से अजनबी शहर की
अपनी पतलून के पाँयचे बगै़र ऊपर उठाये
मैंने गलियों से उनके नाम पूछे:
चक्रवर्ती मुहल्ला/धोबी मुहल्ला
या पत्थरों वाली गली
और हैरत से पाया कि यही
बिल्कुल यही नाम थे
मेरे शहर के मुहल्लों और गलियों के
बच्चे उतने ही भोले
और स्त्रियाँ ठीक वैसी ही हँसती थीं क़रीने से
जैसे मेरे शहर की
(भद्रजन क्षमा करें)
मैं शहर के नये बसे इलाके़ से जानकर बचा
क्योंकि मैं जानता था
कि यह हिस्सा
वाक़ई अजनबी होता है
अपने ही शहर से
फिर तो मैं घुस जाता था किसी भी गली में
निकल पड़ता था किसी भी गली से
किसी भी प्रहर में
लुकाछिपी का यह खेल
मैंने बहुत खेला अजनबी शहर में
ठीक वैसे ही जैसे
खेलता था अपने शहर में
मेरे सुख/मेरे दुख
मुझसे निकलते
और बस जाते इन गलियों में
अजनबी शहर की
जो क़तई अजनबी नहीं था
मैंने शुरू में ग़लत कहा था
अजनबी शहर से दोस्ती
मामूली बात है
अगर आप चल सकें
अपनी पतलून के पाँयचे बगै़र ऊपर उठाये।