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अन्तराल / रमेश रंजक
Kavita Kosh से
आँगन की कोंपली उँगलियाँ
बढ़ गई होंगी
बहुत सारे दिन गए
बिन गए
पल्लू के पीछे चलना
नन्हें पाँवों का—
छत पर जलना
फिर धीरे-धीरे आकर
मेघों का व्योम में टहलना
दुख-सुख के कितने आमुख
छिन गए, बिन गए
क, ख, ग, पढ़ गई होंगी
उँगलियाँ
बढ़ गई होंगी