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अन्तर के तार बजे / रमेश रंजक
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अन्तर के तार बजे
बन्धु ! बार-बार बजे
किसने छू दिया मुझे
प्रातः के चार बजे
सिहर उठा सारा तन
फूल-फूल हुआ बदन
नींद गई, खुले नयन
तन-मन में एक नदी
उतर गई धीरे से
लहरों की थापों से
काँपते कगार बजे ।
दत्त-चित्त नील व्योम
उमस, घुटन, हुई होम
पुलकित है रोम-रोम
प्यार-सी एक छुअन
तैर गई नस-नस में
प्राण में धमनियों में,
अनदिखा सितार बजे ।