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अब कुछ भी / महेश उपाध्याय
Kavita Kosh से
अब कुछ भी सहा नहीं जाता
दरियाई जोश भरा द्वेष
ठान रहा नावों से बैर
टूटे विश्वासों के कगार
अपने से ज़्यादा है ग़ैर
कारण भी कहा नहीं जाता
अब कुछ भी सहा नहीं जाता