उड़न छू गांव / लक्ष्मीकान्त मुकुल
चले आते हैं वैसे ही
सुख के उजले बादल
कंधे को छिल छीलते हुए
जिसे मेरे पुरखे पुण्यों में
गंगा नहान से पाते थे
जलती संवेदना का निर्मम संयोग बना
पॉलिथिन की तरह उड़ता हुआ वो
नदी की मुहाने की ओर ओझल हो जाता
तूपफानी सुख वह
मिला था हमें सूखी मिट्टी के ढेर में
जिसमें पानी भेदा करता था तीरें
नमक-मिर्च के चटपटे स्वाद
नशे में बांध लेने को आतुर थे
गुनगुनी धूप घेर लेती कभी भी
अंतहीन होती संदेहों की राहें
स्मृतियों की घाटी में
चली आ रहीं उठती हुई लहरें
जिसे हल के मूठ पकड़े पिता की हराई में
फाल से बिंधते
टोपरे में पाया था हमने अचानक ही
बरसों पहले धुरियाये खेतों में लुढ़कते हुए
रोज बनती इमारतों की तली में
चुपके से फंसी है उसकी जीवात्मा
मकोड़ों के शालवनों की सड़ांध से
बलबलाते टुकड़े की तरह
फेंक दिये गये उपेक्षित
कहीं नजर नहीं आता उड़न छू गांव
दीखता है चारों तरफ
काले-काले धुएं-सा उठता
पश्चिम का काला पहाड़ और
शोर भरी आंधियों का
दूर तक कोई अता-पता नहीं होता।