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उर्वशी सुनो / चंद्र रेखा ढडवाल

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गंध मादन की हवाओं ने
भरी होगी रिक्तता
तुम्हारे हृदय की
तुम्हे‍ भी तो पुरु
सहला गई होगी
चांद की ठण्डक
और चढ़ते सूरज के साथ-साथ
प्रकाश-पुंज हुई होंगी
तुम्हारी आँखें
फिर वो क्या था
जो तमसे अलग
भोगा उर्वशी ने
कि अभिशप्त हुई वह?