भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
एक फूल से बातचीत / प्रताप सहगल
Kavita Kosh से
आज मैंने
एक फूल से बातचीत की
सुर्ख फूल
खड़ा अकेला
और खामोश
सिर्फ मेरी आंखों में झांकता रहा
फूल की इस हरकत में
एक अजीब तरह का दम्भ था
मुझे लगा
वह मेरी आंखों के रास्ते
अन्दर तक उतर रहा है
फूल ने मेरे अन्दर का नंगापन
देख लिया है
फिर भी खमोश है फूल
और मैं अपने नंगेपन का
कोई तर्क खोजने लगा हूं
चाहता हूं फूल को तोड़-मसलकर फेंक दूं
फूल ने मेरी मंशा को भांप लिया है
उसने अपनी खामोशी तोड़ दी है-
'मैं तो वसन्त की एक ध्वजा हूं
मुझसे क्या?
सानमा करना है तो
वसन्त से करो न।'