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और सिकुड़नी होगीं आँखें / स्वाति मेलकानी
Kavita Kosh से
पानी के फर्श पर
नहीं है
निशान पैरों के
जिन पर चलकर
कदम बढ़ेंगे।
और सिकुड़नी होगीं आँखें
दिमाग को और खुलना होगा
खिंचना होगा पेशियों को
गिरनी होंगी
पसीने की कई बूँदें।
खुद ही आगे
मध्य
अंत तक
ताना-बाना बुनना होगा।
सबको लेकर चलना होगा।
सबकुछ खोकर चलना होगा
और अकेले भिड़ना होगा
अपने इस
एकाकी मन से