भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
कइसे होत किसानी रे! / जयराम दरवेशपुरी
Kavita Kosh से
मन में ताव
मरल हउ भयवा
सतबल पानी-पानी हे
गीत में भरल कहानी हे!
ऊपर में दउड़ऽ हइ बादर
धरती पानी ले तरसइ
चूल्हा के पिछुआरे बइठल
सपरल सिधमानी कपसइ
भारी फिकिर
चिरइयन में
कइसे होत नेमानी रे!
बदरा बान्ह के छिटही गाती
जाके कन्ने नुक्कल
सूरज झउंसे अरती-परती
मन खुदबुद्दी पइसल
फिकिर से अँखिया उलट रहल
कइसे होत किसानी रे!
धरती धिप्पल हो गेल खपरी
ठोर में कैंटी पपड़ी
हावा रह-रह बढ़नी झांटे
टंेट में न´ हे दमड़ी
सपरल सपना माटी हो गेल
गत्तर भेल जुआनी रे।