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कजली / 18 / प्रेमघन

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स्थानिक ग्राम्यभाषा
अर्थात् बिखरी हिन्दी अथवा पड़ी बोली।

विकृत लय

फुलवा ऊमरौ कै रे डरिया ओनै-ओनै जाय-की चाल।

पिय परदेसवाँ छाये रे-मोरी सुधिया बिसराय॥
सूनी सेजिया साँपिन रे-मोरा जियरा डँसि-डँसि जाय॥
सब सजि साज पिया कै रे-ननदी छतियाँ ले लगाय॥
रसिक प्रेमघन को किन रे-सौतिन लीनो बिलमाय॥35॥

॥दूसरी॥


आए सखी सवनवां रे-सैय्याँ छाये परदेस॥
अस बेदरदी बालम रे-नाहीं पठवै सन्देस॥
उमड़े अबतौ जोबना रे-नाहीं बालापन को लेस॥
हेरबै पिया प्रेमघन रे-घरि जोगिनियाँ कै भेस॥36॥