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काँटे काम के / रमेश रंजक
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दिन का दुख भूलूँ—
तो झूलूँ, झूले शाम के
टूट गए नंगे पाँवों में
काँटे काम के
हवा पसीने से कतराती
हँसी उदासी से
छूट गए हैं जैसे—
लगते-लगते फाँसी से
खाली पेट कर रहे दर्शन
चारों धाम के
मुड़े हुए अख़बार की तरह
पड़े हुए हैं हम
ढीली मुट्ठी में
खोटे सिक्के-सा लिए धरम
हमको तोड़ रहे हैं झटके
प्राणायाम के
उतर गया दिन
माथे के सूखे तालाब में
दबी जा रहीं पाँवों की
उँगलियाँ दबाव में
कन्धे होने लगे सहोदर
अल्पविराम में