भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

क्षोभ 2 / प्रेमघन

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज


प्रधान प्रकार की सामान्य लय

गारत भयो भलें भारत यह आरत रोय रह्यो चिल्लाय॥
बल को परम पराक्रम खोयो विद्या गरब नसाय।
मन मलीन धन हीन दीन ह्वै पर्यो विवस बिलखाय॥
नहिं मनु, व्यास, कणाद, पतंजलि गए शास्त्र जे गाय।
गौतम, शंकर हू नाहीं जे सोचैं कछू उपाय॥
नहिं रघु, राम, कृष्ण, अर्जुन, कृप, भीषम भट समुदाय।
विक्रम, भोज, नन्द नहिं जे भुज बल इहि सके बचाय॥
नहिं रणजीत, शिवाजी, बापा, पृथिवी पृथिवीराय।
जे कछु वीर धीरता देते निज दिखाय तन धाय॥
गई अजुध्या, मथुरा, काशी, झूँसी दिल्ली ढाय।
सोमनाथ के टुकड़े मक्के गज़नी पहुँचे जाय॥
नास कियो म्लेच्छन बेपीरन भली भाँति तन ताय।
काको मुख लखि धीर धरै यह नाहिं कछू समुझाय॥
भये यहाँ के नर अधमरत दास वृत्ति मन भाय।
कायर, क्रूर, कुमति, निर्लज्ज, आलसी, निरुद्यम आय॥
दुर्भागनि निद्रा सों निद्रित दीजै इन्हैं उठाय।
बरसहु दया प्रेमघन अब नारायण होहु सहाय॥142॥