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चक्रवात / दिनेश कुमार शुक्ल

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आँधी उठी है प्रचण्ड
सात-दीप नव खण्ड!

प्राण जैसी फड़फड़ाती एक धोती उड़ रही है
झाड़ियों में फँसी उलझी यहाँ निर्जन में
मृत्यु में लथ-पथ पराजित पताका-सी
किन्तु फिर भी हवा से भिड़ती बराबर
एक धोती उड़ रही है आदमी की कीर्ति-सी!

मथ गया संसार-सागर को हवा का मंदाराचल
रौंदती आई झमाझम नाचती उन्मत्त काली रात
कहाँ की माटी उड़ी जाकर रही किस खेत
कहाँ उमड़े और बरसे कहाँ जाकर आँख के बादल!

उड़ गए घर गाँव-जनपद
उड़ गए स्मृति पटल से
अब कहाँ किस अजनबी संसार में वे उड़ रहे होंगे
या बस गए होंगे दुबारा फिर किसी नक्षत्र में!

अब न लौटेगी कभी इस घाट
अब न डालेगी कभी लंगर यहाँ
वह थकी-हारी नाव जल में बहुत गहरे सो रही है
ओढ़ कर गीले अँधेरे की हरी चादर
बगल में सोती हुई निस्पन्द स्मृति एक
देखती है फटी आँखों से पयोनिधि की सजल हलचल
सो रही है एक आकांक्षा यहाँ घर लौटने की
यहाँ जीवन सो रहा है बहुत गहरी नींद सागर-सी!

धनुष में टंकार भरता हुआ आया
क्रूर आखेटक भयानक चक्रवात
एक हिरन आकाश तक चौकड़ी भरता
बादलों की ओट छिपता
मृत्यु से बचकर निकलता भागता है एक जीवन
फूस का छप्पर हमारा अंतरिक्ष
उड़ेगा नीहारिकाओं में कहाँ किस ओर!

फिर न जाने किस अघोरी ने पसारा अनुष्ठान
फिर महोदधि ने अचानक शंख फूँका-
हवा के निर्वात का औंधा कुआँ
हरहराता गगनचुम्बी जल
गूँजती है सिर्फ नीरवता
प्रलय की लय....

फेंट कर सारे अंधेरों को भँवर में
किया है तैयार हालाहल हवा ने
मृत्यु का घातक रसायन भर गया है चक्रवात
आँख में मन में हृदय में चराचर में

हवा का चिग्घाड़ता उड़ता पहाड़
नाचती जलराशि का वह घूर्ण
घुसता चला आया बहुत गहरे दूर तक
थलचरों के संसार में पर्यटक जैसा
छोड़ता आगमन के ध्वंसावशेष!

कि जैसे पेट पर लाठी का हूदा
हच्च से मारा अचानक आततायी ने!
आकाश में अब उड़ रही है
मृत्यु की प्रतिध्वनि सरीखी गूँज पुष्पक यान की
गगन की अट्टालिका चढ़कर
तमाशा देखती हैं राष्ट्र की धृतराष्ट्र आँखें-
देखकर भी देख पातीं कुछ नहीं
शीशे की आँखें

जरा ठहरो!
एक बच्चा अभी फिर चौंका
गड़गड़ाता है क्षितिज पर
और भी हिंसक भयानक चक्रवात!

आँधी उठी है प्रचण्ड
सात दीप नव खण्ड
रोशनी का भेस धरे छाया अन्धकार है
सभी कुछ बिकाऊ यहाँ
आस्था विश्वास न्याय
कोई देश-देश नहीं केवल बाजार है
एक चक्रव्यूह फिर बनाया आखेटक ने
लोभ की उपत्यका में
मृत्यु और जीवन का मुक्त व्यापार है-
सावधान! सावधान! घना अन्धकार है!