चाँद की डेमोक्रेसी / द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी
चाँद!
तुम्हारी डेमोक्रेसी की
देता हूँ दाद।
छोटे से बड़े तुम होते हो
किंतु तुम छोटों के बीच में
हँसते-मुस्कराते सदा रहते हो।
करते हो सभा
रात-रात-भर तारों की
सभासद प्यारों की
और सौंप राज-काज
सारे आसमान का
उनको ही देते हो
पता नहीं अपने पास
कौन ‘पोर्टफोलियो’ रखते हो।
एक बात और है-
आ रहा, युगों से मैं
तुमको हूँ देखता
यश के शिखर पर भी
एक आकार में।
बढ़े नहीं उससे तुम
मोटे हुए और नहीं,
अगर कुछ हुए तो
हुए हो दुबले और छोटे ही।
धन के नहीं मद में तुम भूले हो
राज के मद में नहीं फूले हो
वैसे ही शाँत और शीतल हो
जैसे थे युगों-युगों पहले तुम।
शायद यह इसलिए कि
पूर्ण हो कर भी तुम
अपने अपूर्ण शिशु रूप को
भूले नहीं।
समझ लिया था यह कि
शिशु में ही ‘परमहंस’ रहता है
बड़े हो जानेपर ‘कंस’ भी उभरता है।
काश! जान पाएँ हम
कैसे तुम चलाते हो
अपनी ‘डेमोक्रेसी’ को
क्या है वह राज?
तो हम भी फिर आज
ले आएँ धरती पर
स्वर्ग का राज।
इसीलिए ओ मेरे चाँद!
देता हूँ दाद,
देता हूँ दाद,
तुम्हारी ‘डेमोक्रेसी’ की।
31.12.76