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चील / सुकान्त भट्टाचार्य / उत्पल बैनर्जी

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सड़क पर चलते-चलते
अचानक मैंने देखी :
फ़ुटपाथ पर एक मरी हुई चील !

उसका करुण वीभत्स रूप देखकर मैं चौंक उठा ।
बहुत ऊँचाई से जिसने धरती को
लूटपाट के अबाध उपनिवेश की तरह देखा था,
जिसकी बाज-दृष्टि में थी
केवल लालच और झपटने की दस्यु-वृत्ति —
आज उसे मैंने फ़ुटपाथ पर औंधे-मुँह पड़े देखा ।
मीनार के गुम्बद पर रहती थी वह चील,
कर्कश चिल्लाहट में अपने होने को ज़ाहिर करती थी;
हलकी हवा में डैने पसार देती थी आकाश की नीलिमा में —
बहुतों को पीछे छोड़, अकेली ।
धरती से बहुत-बहुत ऊपर ।

आज बहुत-से लोग निरापद हुए
निरापद हुए चूहे के बच्चे और हाथों में खाना लिए हुए त्रस्त राहगीर,
निरापद — क्योंकि आज मर चुकी है वह ।
आज कोई नहीं जो झपट्टा मार सके,
उसी के द्वारा फेंक दिए गए जूठन की तरह
वह ख़ुद फ़ुटपाथ पर पड़ी हुई है,
सूखी, ठण्डी, विकृत देह लिए ।

जिनके हाथों में बस ज़िन्दा रहने लायक़ खाना था —
सीने के पास जतन से सम्हाले हुए,
आकाश से गिरी हुई उद्धत चील को
निष्ठुर व्यंग्य की मानिन्द पीछे छोड़कर
वे आज निर्भय आगे बढ़ गए हैं ।

मूल बंगला से अनुवाद : उत्पल बैनर्जी