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छतरी / एम० के० मधु
Kavita Kosh से
छतरी से ढँका तुम्हारा चेहरा
नहीं दिखता है,
सुनहरी धूप पर फिसलती
तुम्हारी परछाईं देखता हूँ
और हृदय में फैले बलुआही रेगिस्तान पर
लगता है
ओस की कुछ फुहार बरस गई है ।
रास्तों के फ़ासले हैं,
फ़ासलों में फिसलन है
फिसलन पर तेज़ी से सरकने वाला
तुम्हारा अक्स
मेरे पदचापों को अपने से बाँधे है
यह बरबस बढ़ता है
बढ़ता रहता है
आँखों में तुम्हारी परछाईं की लुकाछिपी को
क़ैद करते हुए
मेरे क़दम की उस बेजुबान आहट को
काश ! तुम सुन सकती
अपने ऊपर फैली उस छतरी को हटा सकती
बस एक बार अपनी गर्दन घुमा
पीछे देख भर लेती
छतरी और परछाईं बढ़ती रही
क़दम भी मेरे बढ़ते रहे
जगह-जगह फैले अलकतरे पर
अपने निशान छोड़ते हुए
सड़क के कंक्रीट
तमाशाई के जश्न में शामिल हो चुके थे ।