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छोटी कविताएँ -1 / सुधा गुप्ता
Kavita Kosh से
चंचु भर
चिर
निर्मल
जल से लबालब भरा
है सरोवर
कहीं से
कोई
कंकर नहीं आता…
यूँ ही
अकारथ भरा रहकर
अकारथ सूख जाएगा ?
काश…
कोई
एक चंचु भर पीने ही आता !
-0-( 25-9-82)
बिछोह
बिछोह
हीरे की कनी की धार वाले
पैने चाकू ने
कच-कच-कच
काटकर लगा दिए ढेर
अहसास के मासूम परिन्दों के
नुचे-बिखरे
स्मृतियों के पंख
पैले ऽ ऽ यहाँ से वहाँ ऽ ऽ तक …
-0-(22-5-83)
वक़्त की सिल
वक़्त की सिल
छाती पर रखी है
सरकती नहीं…
कोई पल कोई छिन
जो तेरी यादों को लिये
कौंध जाता है जुगनू-सा
बस
वही
बेमालूम -सा गुज़र जाता है
कुछ और रास्ता
तय हो जाता है-साँसों का
नहीं तो
वक़्त की सिल
छाती पर रक्खी है…
( 3-6-83)