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जहाँगीर आर्ट गैलरी / शरद कोकास
Kavita Kosh से
रौशनी के एक घेरे में खड़ी एक चित्र को निहारती
एक मूर्त चित्र की तरह लग रही थीं तुम
गैलरी में प्रदर्शित अमूर्त चित्रों की भीड़ में
आड़ी-तिरछी रेखाओं के क्राफ्ट में
कैनवास पर दृश्यमान थी एक नग्न देह
मुझे अमूर्त चित्र समझ में नहीं आते तुमने कहा
जैसे अमूर्त प्रेम
मन ही मन कहा मैंने और मुस्कुराया
कैनवास में कैद स्त्री की मुस्कुराहट में कोई अर्थ नहीं था
वह मुझे कहीं से मोनालिसा की तरह नहीं लगी।
-2009