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दिसम्बर की सुबह / फ़्योदर त्यूत्चेव

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आकाश में अब भी चमक रहा है चन्द्रमा,
रात की अब भी अडोल लेटी है छाया,
बेख़बर है वह पूरी तरह इस सच्चाई से
कि दिन तो पहले ही खड़ा है पंख फैलाए ।
 
एक के बाद एक सहमी-सहमी
सुस्ताते हुए प्रगट हो रही हैं किरणें
और आकाश अब भी पूरे का पूरा
चमक रहा है रात के उल्लास में ।
 
धरती के ऊपर भाप बनकर
रात उड़ जाएगी दो-तीन पलों में
और दिन की दुनिया चारों ओर से हमें
घेर लेगी अपनी समस्त रूपाभा में।

(1859)