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दुष्काल / केशव शरण
Kavita Kosh से
जीवन का ताप देते-देते
संताप देने लगे
क्यों सूर्य !
स्वयं सूरजमुखी का सर लटक गया है
लता सूख गई है फूलों की
हरा सब झुरा गया है
डाली-डाली विवस्त्र है
जल और छाया का हो गया अकाल है
तुम्हारा लाया
यह कैसा उष्काल है
हिमकाल की यातनाओं से उबारनहार !