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धूप / अनिता मंडा
Kavita Kosh से
एन दोपहर के बाद की धूप
बहुत अकेली
अनमनी सी
चलती है अभ्यस्त पाँवों से
धीरे-धीरे
न खिलखिलाते हैं बच्चे
इसका मन बहलाने
न ही उमगे हैं फूल
सारा बगीचा ही सिर झुकाये खड़ा है
धूप रखती है
अपना थका सिर ढलानों पर
कभी रखती है अपने काँधों पर
बादल की शॉल
कभी उदार होती
कभी होती है तेज
अब पल-पल बदल रहा है
धूप का मन
रगों में घुले अवसाद को
बदल रही है आश्वस्ति में
अपनी सींची हुई ऊर्जा से
सुकूँ की ठंडक भी लिए
आ रही है साँझ!