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धूप : एक गौरइया / स्नेहमयी चौधरी
Kavita Kosh से
मैंने कहा धूप से--
धूप! ज़रा ठहरो,
मैं भी तुम्हारे साथ चलूंगी,
यहाँ यह ठिठुरन,यह अंधियारा
मुझे तनिक नहीं भाता है।
लेकिन धूप,धूप थी,
- भला क्यों रुकती !
मुझे मटमैली साँझ दे चली गई।
मैंने देखा : मेरे ऊपर से
पंख फड़फड़ा गौरइया एक क्षितिज की ओर उड़ी
जाने कहाँ खो गई।