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नखत की परछाँईं / जगदीश गुप्त
Kavita Kosh से
अँकुरती सी क्यारियों में धान की,
राशि, वर्षा से बिखरते दान की,
हुई संचित,
उसी संचित राशि में सीमन्त सी
झि ल मि ला ई
क्षीण परछाँईं
फटे-टूटे बादलों के बीच से
झाँकते नन्हें नखत की
नखत की वह क्षीन परछाँई
छू गई हर एक रग जी की।
युग युगों से हृदय की सुकुमार पर्तों में बसी थी जो
वह रजत सी रात पूनों की
लग उठी फीकी।