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निरखि मुखचंद तुहारौ नाथ / हनुमानप्रसाद पोद्दार

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निरखि मुखचंद तुहारौ नाथ !
भयौ जनम-जीवन मेरो यह सार्थक धन्य सनाथ॥
भये प्रसन्न सफल मेरे ये जुगल नयन सब अंग।
उछलि रह्यौ मन आनंदांबुधि बिबिध बिचित्र तरंग॥
पाँच परान प्रेम-रस भींगे, आत्मा उमड्यौ नेह।
जरत बिरह-पावक अति भीषन बरस्यौ अमरित-मेह॥
डारि पियूष-बरषिनी दृष्टस्न्‌ मो तन, मेट्यौ ताप।
भर्‌यो सुधा-सागर उर-‌अंतर सीतल सुखद अमाप॥
रहते तुहरे ढिंग यह मेरी सुन्दर देह पवित्र।
सोभा-सुषमामयी रहत नित, सक्ति-सुरूप, बिचित्र॥
रहूँ सिवा, सिवदा, सिव-बीजा, सिव-स्वरूपा नित्य।
बनी रहूँ मैं प्रियतम! तुहरे संग सुमतिमयि सत्य॥
पलक एक तुहरे बिछुरत ही होय सकल सुभ नास।
सक्ति, सुमति, सुषमा, सुंदरता, सुद्धि, मधुर-‌आभास॥
बिनसत सकल तुरत मुर्दा-ज्यों धरनी पर्‌यौ सरीर।
सिव-बिहीन, अति दीन, दुःखमय, दारुन, बिकल, अधीर॥
यह सब समुझि प्रानवल्लभ! अब मति बिछुरौ पल एक।
परम उदार! निबाहौ प्रियतम! प्रीति-रीति की टेक॥

(सोरठा)
सुनि राधाके बैन, प्रीति-दीनता ते सने।
भरि आ‌ए दो‌उ नैन, बोले हरि बच मधुर सुचि॥