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नेत्र - 1 / प्रेमघन
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अनुराग पराग भरे मकरन्द लौं,
लाज लहे छबि छाजत हैं।
पलकैं दल मैं जनु पूतलि मत्त,
मलिन्द परे सम साजत हैं॥
घन प्रेम रसै बरसै सुचि सील,
सुगन्ध मनोहर भ्राजत हैं।
सर सुन्दरता मुख माधुरी वारि,
खिले दृग कंज विराजत हैं॥